सिटाग्लीपटीन -डायबिटीज के कुछ खास ग्रुप के मरीजों के लिए वरदान
सन् 1997 के बाद, डायबिटीज की एक दवा सिटाग्लीपटीन (जुनिवया-100) उपलब्ध हो गयी । यह दवा निरापद ढंग एवं प्राकृतिक तौर पर कार्य करती है।
यह सही है कि सल्फायलयूरियाज ग्रुप की गिल्मीपेराइड एवं बाइगुवानाइड ग्रुप की मेटफोरमिन के बिना तो काम ही नहीं चलता।
सिटाग्लीपटीन दवा सन् 2008 में आयी है
सिटाग्लीपटीन दवा सन् 2008 में आयी है और इसी ग्रुप की अन्य दवाइयां एक-दो साल में बाजार में आ जायेंगी। अमेरिका की प्रसिद्ध कंपनी एमएसडी ने अभी भारत में पहली बार सिटाग्लीपटीन को लांच किया है। इसकी 25, 50 और 100 मिग्रा की मात्रा टेबलेट के रूप में उपलब्ध है। मजे की बात यह है कि तीनों का दाम प्रति गोली 42 रुपये रखा गया है। पेटेंटेड ड्रग होने के कारण अगले दस-बारह सालों में कोई दूसरी कंपनी इसे बाजार में नहीं ला सकती। दवा के महंगे होने का एक मुख्य कारण कंपनी द्वारा दवा का रिसर्च किया जाना है। जितना खर्च रिसर्च पर दवा कंपनी करती है अंततः वह पब्लिक के पॉकेट पर ही जोड़ा जाता है। अगर बाजार में दूसरी कंपनी इसी दवा का लांच न करने जा रही हो तो मोनोपॉली का मामला दवा के मूल्य को कम नहीं होने देता।
कैसे काम करती है दवा
सिटाग्लीपटीन डीपीपी-4 इन्हीबीटर ग्रुप की दवा है। इसी ग्रुप की एक अन्य दवा विडाग्लीपटीन को नोवारतिस कंपनी लांच करने जा रही है। बीएम स्कीव कंपनी सेक्साग्लीपटीन दवा को भी शीघ्र भारत में लांच करेगी। बहरहाल मात्र सिटाग्लीपटीन उपलब्ध हुई है। यह दवा शरीर में जीएलपी वन एवं जीआइपी नामक हारमोनों की मात्रा को शरीर में बढ़ा देती है। ये हारमोन पैनक्रियाज के बीटा सेल्स को उद्दीपीत कर इंजुलीन स्रावित कराते हैं, अल्फा सेल्स से ग्लुकागोन को निकलने से रोकते हैं, जिससे लीवर रक्त में ज्यादा ग्लुकोज नहीं फेंक पाता। इस तरह रक्त में ग्लुकोज की मात्रा नियंत्रित रहती है। जीएलपी-वन और जीआइपी हमारी आंतों से प्राकृतिक तौर पर खाने के बाद स्रावित होते हैं। स्रावित होने के बाद पांच मिनट बाद ही डीपीपी-4 इंजाइम इसे नाकाम कर देता है। सिटाग्लीपटीन इसी डीपीपी-4 इंजाइम को यह काम करने नहीं देता। जिससे जीएलपी-वन की मात्रा बढ़ जाती है। इस दवा को इसीलिए इनक्रैटिन इन्हैंसर कहते हैं। ब्लड सुगर के नियंत्रण में अब जीएलपी-वन जैसे आंतों से स्रावित होनेवाले इन्क्रैंटिन हारमोंस की महत्ता छुपी नहीं है। मगर इस सिद्धांत को कि ब्लड सुगर की मात्रा का आंतों के हारमोंस से कुछ लेना-देना है, बहुत दिन तक चिकित्सा जगत में संदेह की दृष्टि से देखा जाता रहा।
हालाँकि 1932 में ही कुछ वैज्ञानिकों ने ऐसी परिकल्पना की थी / एम्स के डॉ जेएस बजाज ने 1967 में इस परिकल्पना को पेश किया था। उस समय उनकी इस परिकल्पना को दुनिया ने शक की दृष्टि से देखा था।
यह इन्सुलीन का विकल्प नहीं है
शोधों ने दिखाया है कि यह निरापद ढंग से काम करते ब्लड सुगर का अच्छा नियंत्रण करती है। इसके काम करने का ढंग भी बड़ा नेचुरल है। अभी अरबों रुपया इस ग्रुप की दवाओं के रिसर्च पर लगा हुआ है। भारत विश्व डायबेटिक कैपिटल होने का कारण इन दवाओं का एक बड़ा बाजार है। रोज 42 रुपये की दवा को लेना कुछ खास ग्रुप के मरीजों के लिए ही संभव होगा। वैसे मरीज जो इंसुलीन की सूई लेना नहीं चाहते उनके लिए यह कितना उपयोगी है, यह तो समय ही बतायेगा। वैसे यह इन्सुलीन का विकल्प नहीं है। सिटाग्लीपटीन को मेटफारमिन के साथ या ग्लीटाजोंस के साथ दिया जा सकता है। वैसे तो सिटाग्लीपटीन के साथ जुड़े सारे तथ्यों की खबर बड़ी अच्छी है, मगर इतिहास गवाह है कि नयी दवाइयों का बाजार में चल पाना उसके दूरगामी सुरक्षा एवं सशक्त प्रभाव पर ही निभॆर करता है। कई बार, कई नयी दवाइयों के प्रयोग के बाद इतना खतरा हुआ है कि उन्हें बाजार से हटाना पड़ा है। भारत में शुरुआती दौर में ही सिटाग्लीपटीन अच्छा बिजनेस कर रही है। उम्मीद की जा रही है कि यह डायबिटीज के कुछ खास ग्रुप के मरीजों के लिए वरदान बनेगी।