डायबिटीज की व्यापकता और इससे होनेवाले दुरूह परिणामों की बात करें तो सन 1812 में जो स्थिति थी आज सन 2020 में बहुत अच्छी नहीं है। बल्कि ज्यादा खराब ही है।

मेडिसीन जगत की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘न्यू इंग्लैंड र्जनल’ ने दो सौ साल पूरे होने पर एक महत्वपूर्ण संपादकीय में कहा कि जब सन् 1812 में र्जनल का पहला अंक छपा था, ‘डायबिटीज’ एक बीमारी के रूप में तो पहचाना जा चुका था। मगर उस समय इसकी व्यापकता, इसके होने में किन बातों का हाथ है और इलाज में क्या करना है, इसका कुछ भी पता नहीं था। सन् 1776 में मैथ्यू डॉब्सन ने यह बता दिया था कि इस बीमारी में पेशाब में ग्लूकोज की मात्रा बढ. जाती है। पिछले दो सालों में डायबिटीज के पहलुओं पर मेडिकल साइंस ने नयी मंजिलें पार कर ली है। न्यू इंग्लैंड र्जनल की यह उक्ति गौरतलब है कि इन ऊंचाइयों को छूने के बाद भी जहां तक डायबिटीज की व्यापकता और इससे होनेवाले दुरूह परिणामों की बात करें तो सन 1812 में जो स्थिति थी आज सन 2019 में बहुत अच्छी नहीं है. बल्कि ज्यादा खराब ही है।

साइंस की उड़ान:

दो सौ सालों में हुए शोधों ने डायबिटीज की अवधारणाओं पर अभूतपूर्व विकास किया है। डायबिटीज पर अब तक दस वैेज्ञानिकों को नोबेल प्राइज मिल चुका है। हमारी धारणा दो दशक पहले यह थी कि ‘इंसुलिन की कमी’ ही इस बीमारी का मुख्य कारण है वह अब टाइप ‘टू’ डायबिटीज के परिप्रेक्ष्य में केवल दस फीसदी तक आंकी जा रही है। इंसुलिन की नाकामी यानि ‘इंसुलिन रेसिस्टेंस’ की समस्या 90 फीसदी तक टाइप ‘टू’ केसों में होने की बात आयी है और इस धारणा ने डायबिटीज के बढने के कारणों का खुलासा कर दिया है। फास्ट फूड कल्चर और निठल्लेपन के कारण जो इंसुलिन शरीर में स्रावित होता है वह सही ढंग से काम नहीं कर पाता और यही तथ्य हमारे देश में रौद्र रूप दिखा रहा है, जहां 25 से 35 साल के लोगों को यह बीमारी पकड़ रही है। यह निर्विवाद है कि सन में चार्ल्स बेटिंग (जिनका जन्मदिन 14 नवंबर की विश्वह मधुमेह दिवस के रूप में मनाते हैं) और बेस्टने ने पहली बार इंसुलिन की खोज की जो मानवता के इतिहास का एक अहम पड़ाव साबित हुआ। शोधों में तो क्रांति आ गयी है और वह दिन दूर नहीं जब इंसुलिन की एक सूई पूरे महीने तक काम करेगी। पिछले दशक में जीएलपी वन संबंधित दवाइओं ने भी मुकाम बनाये हैं। लीराग्लुटाइड दवा कुछ खास मरीजों के लिए वरदान साबित हो रही है। सीटाग्लीपरीन, विलडाग्लीपटीन, सेक्साग्लीपटीन, लीनाग्लीपटीन जैसे डीडी फोर इंहीबीटर दवाइओं द्वारा डायबिटीज का नेचुरल ढंग से इलाज संभव है।

जहां हम हार रहे हैं

डायबिटीज अब हर घर में घुस चुका है। नयी पीढ़ी को आक्रांत कर हमारे ‘फ्यूचर’ को बरबादी की ओर धकेल रहा है। यह हार्ट फेल्यर, किडनी फेल्यर, अंधापन, पैरों की गैंग्रीन, सेक्सुयल फेल्यर और नसों की खराबी से स्वास्थ्य संबंधी असंख्य का कारण बन जाता है। जेनेटिक फैक्टरों की दुहाई देनेवालों को अवश्य जानना चाहिए कि टाइप ‘टू’ डायबिटीज, जो भारत में 98 प्रतिशत मामलों में होता है, उसका कोई भी प्रीडोमिनेंट जेनेटिक ससेप्टीबिलिटी लोकस अभी तक नहीं पाया गया है। करीब 40 वैरिएंट लोकस हैं, जो टाइप ‘टू’ डायबिटीज होने का खतरा बढ़ाते हैं और वह भी मात्र दस प्रतिशत मामलों में। यानी 90 प्रतिशत डायबिटीज के मामले मात्र गलत जीवनशैली से हो रहे हैं। यही बात आज जन-जन तक पहुंचाने की जरूरत है कि बचपन के दिनों से ही सही भोजन का चुनाव और नियमित फिजिकल एक्टिविटी ही वह ‘परम ज्ञान’ है जो हमें डायबिटीज की महामारी से मुक्त करेगा। संदेश है कि डायबिटीज से बचिये और देश का भविष्य सुरक्षित कीजिये।