अतीत की ओर नजर दौड़ाएँ। ईसा पूर्व 600 वर्ष पहले भारतीय मनीषी सुश्रुत ने मधुमेह के बारे में काफी कुछ लिखा है।पापायरस में जो कि 1500 वर्ष ईसा पूर्व का माना जाता है,मधुमेह के उपचार के कई नुस्खे बताये गये हैं। अरेटीयस ने दुसरी शताब्दी में लिखा-न छुटने वाली इस बीमारी में जिन्दगी छोटी हो जाती है,शरीर का मांस गलकर मूत्र द्वारा निकल जाता है और मौत आ जाती है। 1920 में एक अंग्रेज सर्जन की आंख में चोट लगी। शल्यक्रिया के बाद घाव नहीं भरने के कारण पेशाब की जाँच की गयी। पेशाब में शक्कर के के पाए जाने के बाद वह सर्जन अपने अंतिम दिनों को शराब और ताजी हवा लेकर गुजारने लगा। अटपटे नुस्खों को लेने के बजाये यही रास्ता खुशगवार था। बीमारी के बारे में जो भी पता हो, उपचार में मुलतः कुछ भी नया नहीं था, 4000 वर्ष पहले से लेकर अब तक । मॄत्यु शैय्या पर पड़ा अतिंम दिनों की उदास शामों का अंतिम पड़ाव अचानक एक दिन आ गया। एक टेलीग्राम के रुप में,लंदन से एक साथी ने लिखा था। घर आओ शीघ्र,’इंसुलीन’आ गया है।और जिन्दगी बदल गयी। मानवता के इतिहास में एक महान घटना घटित हो चुकी थी। 30 जुलाई 1921 को फैडरिक वैन्टिंग और चार्ल्स वेस्ट ने इंसुलीन की खोज कर ली थी।
कैसे हुई खोज इंसुलीन की?
बैटिंग और वेस्ट दोनों विभिन्न् परिस्थितियों में पले और बढ़े। 1891 में जन्मा बैटिंग काफी चंचल और मस्त लड़का था। चर्च और भगवान के प्रति आस्था को देखकर यह अनुमान किया गया कि वह बड़ा होकर पादरी बनेगा। किन्तु अपने एक साथी की मॄत्यु मधुमेह से हो जाने के दुखद प्रसंग के बाद उसे डाक्टर बनने की धुन समा गयी। चार्ल्स वेस्ट के पिता एक डाक्टर थे और बचपन से ही रोग और रोगियों के आस -पास वह मंडराता रहा। यहा तक कि रोगियों को आपरेशन के समय बेहोशी प्रक्रिया में फिजियोलाजी की पढाई शुरु की।अंतिम वर्ष में एक नये सर्जन ने एक ऐसे आदमी के लिये विज्ञापन दिया जो मधुमेह से जुड़े कुछ प्रयोगों में पूरी आस्था से साथ दे सके।वेस्ट ने इस स्वर्णिम अवसर को खोया नहीं। इस प्रक्रिया में जिस नये सर्जन के साथ उसे काम करना था,वह कोई और नहीं,फ्रैडरिक वैन्टिंग था। एक दिन यूनिवर्सिटी ऑफ आनेरिया के मेडिकल लाइब्रेरी में बैठा वैन्टिंग यूं ही एक मेडिकल जर्नल सर्जरी,गाईनी-ऑब्स -अक्टूबर 1920 के पत्रों को पलट रहा था कि उसकी नजर माँस- वारेन के एक लेख पर पड़ी।उसमें यह परिकल्पना की गयी थी कि मिनकोक्सी के प्रयोगों को यदि आगे बढाया जाये तो आग्नाशय (पैनक्रियाज) से निकलने वाले एक रस को अलग किया जा सकता है जिससे मधुमेह की बिमारी का ईलाज किया जा सके। इस परिकल्पना से बैन्टिंग काफी उत्साहित हो गया। उसे यह पता नहीं था कि एन्टीडायबेटिक पदार्थ को खोजने के पुराने प्रयत्न कितनी बुरी तरह विफल हो गये थे। वह तुरंत टोरेन्टो गया और फिजियोलाजी के प्रोफेसर मैकलियोड से मिला । जो रुपरेखा बैन्टिंग ने प्रस्तुत की वह मैकलियोड को कोरे पागलपन के सिवा कुछ नहीं लगा। ऊन्होंनें कोइ उत्साह नहीं जताया।कुछ विशिष्ट पैरवी लगाने के बाद मैकलियोड बड़ी मुश्किल से और अनिच्छा से इस बात के लिये राजी हुए कि प्रयोग के लिये कुत्ते दिये जायें।साथ ही यह समझते हुए कि वैन्टिंग को प्रयोगों की रसायनिक विदया का कुछ खास ग्यान नहीं है,उन्होने एक सहायक भी उपलब्ध करा दिया और स्वयं स्काटलैंड छुट्टी मनाने चल दिये।

इसी बीच चार्ल्स बेस्ट, बैन्टिंग के साथ काम करने के लिये आ गये।वह साल था 1889 का जब मिनकोस्की स्ट्रासवर्ग में मेडिसीन विभाग में सह प्रध्यापक थे।एक दिन उन्होंने अपने सहायक से खेल ही खेल में पूछा कि क्या एक कुत्ता जिसका आग्नाशय निकाल दिया गया हो जिन्दा रह सकता है? यह बात उसके दिमाग में कैसे आई,यह एक रहस्य है। कुछ ही दिनों के बाद उन्होनें एक कुत्ते का आपरेशन करके अग्नाशय निकाल दिया। 24 घंटे बाद यह पाया गया कि मूत्र में 5% सुगर आ गया है और मधुमेह के लक्षण उत्पन्न होने लगे।इससे यह बात सिध्द हो गया कि आग्नाशय हटाने से ही मधुमेह उत्पन्न होता है। मधुमेह के अनुसंधान के इतिहास में यह् सबसे महत्वपुर्ण जानकारी थी। मिनकोस्की ने यह जानकारी हासिल तो कर ली मगर यह पता नहीं चल सका कि के किस खास जगह में वह रहस्यमय फैक्टर छुपा हुआ है। ऊन्होंने कई प्रयोग किए किन्तु सफलता नही मिल सकी और उन्होने इस प्रयोग से मुँह मोड़ लिया।यह भी आश्चर्य का विषय है की मिनकोस्की के भाग्य में इंसुलिन की खोज का सेहरा नहीं बंध सका।
1901 में ऑपी नामक वैग्यानिक ने अमेरीका की एक प्रयोगशाला में खोज के आधार पर यह सिध्द कर दिया कि अग्नाशय के एक खास जगह के टिशूज में डिजेनेरेशन हो जाता है,सेल्स सिकुड़ जाते है और सूखे से लगते हैं-वैसे मरीजों में जो मधुमेह से मरे थे।इस विशिष्ट स्थल को आइजलेट आफ लैनगरहैन कहा गया। यह जानकारी 1902 में लियोनिड ने अपने प्रयोगों के आधार पर दी। सर एडवाड सापेसेफर ने 1916 में यह परिकल्पना की कि मधुमेह इन्हीं आइजलेट के किसी आंतरिक स्रावण की कमी से होता है और इसका नाम इंसुलीन रख दिया।यह एक अत्यंत साहसिक उदघोष था। इंसुलीन लैटिन शब्द इनसुला से आया है जिसका अर्थ आइजलैण्ड यानि द्वीप होता है। कई वैज्ञानिकों ने इस रस को अलग करने की कोशिश की किन्तु सफलता नहीं मिली। बल्कि मेडिसीन के कई महारथी यह मानने की लिए पूर्णतः तैयार नहीं थे कि सचमुच में कोई ऐसा पदार्थ अग्नाशय से स्रावित होता है।
साधारण और बेकार सी प्रयोगशाला में इंसुलीन की खोज की गयी

तो यह थी अब तक की भूमिका जिसके आगे बैन्टिग और वेस्ट को काम करना था। अभी भी अन्धेरा घना था और मौसम बेकरार। मैकलियोड की उदासीनता अंधेरे को और घना कर रही थी। मगर दिल में अदम्य उत्साह लिए ये दोनों उसमें जुटे थे। 1921 की गर्मिंयों के दिन थे। हर सुबह वैन्टिंग और वेस्ट उस छोटे से कमरे में पहुंच जाते। कमरे में धूप नहीं पहुंच पाती थी और यह एक वरदान जैसा सिद्ध हुआ। एक या दो बेंच पड़े थे और आयरन फ्रेम में कुछ बोतलें और रिएजेन्ट रखे हुए थे। कुत्तों का रूम उपर में था। कुत्तों के रूम के बगल में एक छोटा का क्यूबिकल था जिसमें कुछ औजार और फटे-चिथड़े लिनेन पड़े थे। हैरानी होती है यह जानकर कि ऐसी साधारण और बेकार सी प्रयोगशाला में इंसुलीन की खोज की गयी। उन्होंने कुछ कुत्तों पर आपरेशन करके अग्नाशय से निकलने वाली नली को बांध दिया। यह सोचकर कि इससे करीब छह हफ्ते के अंदर आग्नाशय ग्लैंड सूख कर डिजेनेरेट कर जाएगी और बचे हुए आइजलेट के एक्सट्रैक्शन से उस रस को निकाला जायेगा। फिर उसका शुद्धिकरण करके वैसे कुत्तों में इन्जेक्ट किया जायेगा जिनका अग्नाशय निकाल कर उनमें मधुमेह पैदा किया गया है। उनके पास पैसों और साधनों की भारी कमी थी। कुत्तों को खिलाने नहलाने और उनके मुत्र शकर्रा का जांच आदि कामों के लिए एक सहायक रखने की भी हैसियत नहीं थी। कुत्तों के मूत्र को इकट्ठा करना एक दुष्कर कार्य था। बेंच के नीचे ऊपर के कमरे से कुत्तों को लाकर घंटों झुक कर बैठे रहना और प्रतिक्षारत रहना उनके मूत्र के लिए भले ही बोरियत का विषय लगे लेकिन बैन्टिंग एंव वेस्ट के लिए यह एक प्रेमिका की प्रतीक्षा की तरह सुखदायक था। इस प्रयोग के छह हफ्ते बाद उन कुत्तों का अध्ययन किया गया। जैसा कि उन्होंने सोचा वैसा कुछ हुआ ही नहीं, किसी भी कुत्ते की अग्नाशय ग्रंथि डिजेनेरेट नहीं हुई थी। निराशा में डूबे घबड़ाहट में उन्होंने फिर दूसरी बार प्रयत्न शुरू किया। समय कम था। मैकलियोड ने यह सुविधा केवल गरमी की छुट्टियां समाप्त होने तक ही दी थी। उन्होंने अग्नाशय की नली इस बार अच्छी तरह बांधा। पिछली बार एक ही गांठ से बांधने के कारण नली में फिर सुराख बन गया था। इस बार इनका प्रयोग सफल हुआ। आग्नाशय ग्रथिं का डिजेनेरेशन पांच से छह हफ्ते में होने के बाद निकाल कर काफी ठण्ढे खरल और मूसल की सहायता से बालू के साथ पीसा गया। फिर इस पीसे गये पदार्थ को रिन्जर घोल में डाला गया।उनके पास फ्रिज जैसी कोई चीज तो थी नहीं, तापमान साधारण उपायों से जितना कम रखा जा सकता था, रखा गया। शीघ्र यह संभव हो गया कि इस घोल का परीक्षण उन कुत्तों पर किया जाए जिनमें मधुमेह की अवस्था उनके आग्नाशय को निकाल कर उत्पन्न की गयी है।
शनिवार 30 जुलाई 1921 की वह सुबह

शनिवार 30 जुलाई 1921 की वह सुबह थी।उन्होंने उस बनाए हुए घोल का चार मि. ली. कुत्ते नम्बर 391 से 410 को इंजेक्ट किया। कुत्तों का ब्लड सुगर 0.20 प्रतिशत से 0.12 प्रतिशत कम हो गया। दो घंटे बाद घोल की पांच मि.ली. की मात्रा पुनः इंजेक्ट की गयी। फिर प्रयोग को विभिन्न तरीकों से करके उन्होंने सिद्ध कर दिया कि इस विधि से प्राप्त एक्सट्रैक्ट, ब्लड सुगर को कम कर देता है। चिकित्सा जगत में एक महान घटना घट चुकी थी।
बैटिंग और वेस्ट ने इस तरह प्राप्त एक्सट्रैक्ट का नाम आइजलेटीन दिया। उन्होंने पूरी रिपोर्ट प्रोफेसर मैकलियोड को तार द्वारा स्काटलैंड भेजा जहाँ वह छुट्टिया व्यतित कर रहे थे। तार पढकर मैकलियोड का माथा ठनका। यह भांपते हुये कि एक महान अन्वेषण हो चुका है वह बोरिया-बिस्तर समेट वापस आने को तत्पर हुए और यह योजना बनाने लगे कि कैसे येह क्रेडिट अपने सर लिया जाये।
अजन्मे गाय के भ्रूण के अग्राशय में आइजलेट अन्य टिसूज में विकसित होने के पहले ही बन जाता है। उनके लिये ऐसे गाय के भ्रूणों को किसी तरह पाना संभव हो सका। भ्रूण के पांचवें महीने के पहले वाले अग्राशय के एक्सट्रैक्ट में शक्तिशाली ‘आइजलेडीन’ पाया गया । यह इतना उपयोगी पाया गया कि मधुमेह की अवस्था वाले कुत्ते समान्य हो गये। यहां तक कि मैजोरी नामक कुत्ते को इस एक्सट्रैक्ट की ज्यादा मात्रा इंजेक्ट कर उन्होनें ब्लड सुगर समान्य से काफी कम कर दिया। यानि यह एक्सट्रैक्ट हायपोग्लायशिमिया करने में समर्थ था।
इंसुलिन रख दिया उसका नाम

इसी बीच मैकलियोड लौटे और इस पदार्थ का नाम इंसुलिन रख दिया और इस खोज की पुर्ण जानकारी 14 नवंबर 1921 को यूनिवर्सिटी आफँ टारन्टो में दी। मैकलियोड ने ऐसा जाल बिछाया की सारा क्रेडिट उन्हे मिल जाये।उमके लिए यह पचाना मुश्किल था कि कल के दो छोकडों ने वह कर दिखाया जो उनके जैसा काबिल प्रोफेसर न कर सका ।
जब इंसुलिन के लिये नोबल प्राइज की घोषना की गयी तो उसमें सिर्फ मैकलियोड और बैन्टिंग का नाम था। वेस्ट का नाम नहीं था। बैन्टिंग ने सच्चाई का उदाहरण देते हुए कहा कि वह प्राइज तभी लेगें जब उसमें वेस्ट का नाम भी शामिल किया जाये और बाद में यही हुआ।
अब इंसुलीन को मनुष्यों के लिये उपचार के योग्य बनाना था। इसके लिये सबसे पहले उन्होने अपने उपर इसका प्रयोग किया। एकसट्रैट लेने से थोड़े देर के बाद रिएक्शन हुई पर कोई खतरनाक साइड इफैक्ट नही हुआ। बैन्टिंग और वेस्ट एकसट्रैक्ट को टोरेन्टो जेनरल अस्पताल के फिजीशियन डा.कैम्पबेल के पास ले गये। वह थोम्पसन का ईलाज कर रहे थे। उसे 1920 में 11 वर्ष की उम्र में मधुमेह ने जकड़ा था। मधुमेह के कारण वह सूखकर कांटा हो गया था,बाल गिर गये थे,मांस गल चुके थे और मुत्र से एसीटोन निकल रहा था।
मौत दिन ब दिन नजदीक आ रही थी। इसी बीच डा कैम्पबेल को इस एक्सटैक्ट के बारे में बताया।उन्होने कहा- मैं यह नही जानता कि यह पदार्थ क्या है।इसके उपयोग से क्या होगा। जान भी जा सकती है।किन्तु यूनिवरसिटी में एक नयी दवा ईजाद हुई है। तब थोम्पसन के पिता ने डा. कैम्पबेल को प्रयोग की अनुमती दे दी और 12 जनवरी 1922 को इंसुलिन पाने वाला पहला आदमी हो गया।इन्सुलीन चिकित्सा ने जादू जैसा असर किया। वह मरणश्य्या से उठ कर समान्य जीवन जीने लगा और इन सब के पीछे बैनंटिग और वेस्ट की स्वप्निल फैन्टासी मुस्कुरा रही थी।
आगे क्या हुआ

1921 के आगे के कुछ दशक में इंसुलिन के अच्छे और शुद्ध प्रकार की दिशा में कुछ खास प्रगति न हो सकी। 1970 के आस-पास इंसुलिन धीरे-धीरे उपलब्ध होने लगा। कान्वेनशनल इंसुलिन बीफ और पोर्क से निकाले जाने लगे। बीफ इंसुलिन ज्यादा उपयोगी पाया गया। 1970 में मोनोकम्पोनेन्ट इंसुलिन की धारणा सामने आई और नये जेनरेशन के मोनोकम्पोनेन्ट इंसुलिन 1957 में बाजार में आये।बीफ और पोर्क से इंसुलिन को प्राप्त करने के लिये बहुत जानवरों को स्वर्ग पहुचना पड़्ता था। इतने इंसुलीन का मिलना कि रोगियों मांग पूरी की जा सके संभव नहीं है। अंततः रिकम्वीनेट डी एन ए तकनीक के विकसित होने के बाद 1982 में ह्युमन इंसुलिन का निर्माण बडे तौर पर कोड करने वाले जीन्स को जीवाणु ई. कोलाई के कल्चर में डाल कर असीमीत तौर पर इंसुलिन का निर्माण संभव है। ह्युमन इंसुलीन से फायदे ही फायदें है।
लेन्टें या प्लेन कन्वेंशनल इंसुलीन का जमाना खत्म होने ही वाला है। विकसित देशों में इसका उपयोग नहीं के बराबर है। ह्युमन इंसुलीन एक तो एन्टेजेनीक नहीं होता, इससे इंसुलीन एलर्जी भी नहीं होती। इंसुलीन रेसीसटेन्ट, लाइपोडिस्ट्राफी आदि का भी इसमें खतरा नहीं। ह्युमन इंसुलिन की कीमत अधिक होने के कारण विकासशील देशों में इसका उपयोग सही ढंग से नहीं हो रहा है। लेकिन ह्युमन इंसुलिनकी दैनिक मात्रा कन्वेंशनल इंसुलिन से कम होती है,इससे अंततः पूरा खर्च ज्यादा नहीं पड़ता। चिकित्सक इस तथ्य को ध्यान रखे तो अच्छा होगा।
इंसुलिन, मंजिलें और भी हैं
इंसुलिन की खोज हुए 70 साल हो चुकें हैं। अब वैज्ञानिक ऐसे प्रयत्न कर रहे है किकीसी अन्य रुट से इंसुलिन को शरीर में पहुचाँया जाये।
i. इंसुलिन, के टेवलेटस्- इस दिशा में असाधरण खोज हुई है। शीघ्र इन्सुलीन के टेबलेट का प्रयोग शुरू होने की आशा है। इंसुलीन को मुंह के द्वारा देने से होता यह है कि आंतों में पाए जाने वाले इन्जाइम इंसुलीन को तोड़ कर नष्ट कर देते हैं क्योकि यह एक प्रोटीन है। इस तरह से पचा हुआ इंसुलीन किसी काम का नहीं होता। अगर इंसुलीन का डिग्रडेशन आंतों में रोका जा सके तो एवजार्ब होने के बाद यह ब्लडसुगर को कम करने में सफल होगा। प्रयत्न किये गये हैं कि कुछ खास रसायनों (सपनीन, पोली एक्रालीक एसीड आदि) की सहायता से इन्सुलीन की बर्बादी आंतों में न हो। किन्तु इस प्रक्रिया में रक्त में पहुंचने के बाद इन्सुलीन का कार्य बड़ा अनियमित पाया गया। जिसके कारण उपचार के तौर पर इसका उपयोग नहीं हो पा रहा है। इस अनियमित एक्शन के कारण कभी सुगर बढ़ जाता है तो कभी कम हो जाता है। आज की तारीख में पूरे विश्व में कहीं भी इन्सुलीन के टेबलेट उपचार के लिए उपलब्ध नहीं है। मगर भविष्य में कब ऐसा संभव हो जायेगा, कौन जानता है।
ii. वकल पैक इंसुलिन-प्रयत्न किए गये हैं कि इंसुलिन को मुहँ में रख देने से म्यूकोजा द्वारा उसे रक्त में पहुचाँया जाये मगर इंसुलिन का मोलिक्युल बडा होने से यह भी उपयोगी नहीं है।
iii. फेफड़े के द्वारा इनहेलेशन- सांस के द्वारा इंसुलिन देने से फेफड़े में जाता है और एवजार्व होकर रक्त में पहुंच जाता है। इस रुट से इंसुलिन का प्रयोग शुरु हो गया है और प्रभावकारी पाया गया है। इंसुलिन इन्हेलर अब एक नई आशा बनकर आ रहा है।
iv. रेक्टल रुट भी कारगार नहीं पाया गया।
v. नेजल स्प्रे-नाकों में स्प्रे के द्वारा इंसुलिन का प्रयोग ज्यादा उत्साहजनक नहीं है। यहां से इंसुलिन एवजार्व होने के बाद नियमित और प्रभावी ढंग से कार्य करता है। यह 10 से 15 मिनटों के बाद ही कार्य करना शुरु करदेता है और एक घंटे में इसका असर समाप्त हो जाता है। जेल कैपसूल आदि पर अभी शोध जारी है।
भविष्य में इस तरह के इंसुलिन का प्रयोग बढने की संभावना है। प्रयत्न जारी है। भविष्य की झोली में नये उपहार मिलने की पुरी संभावना है।