(कुछ खास केसों में)…

अमेरिकन एसोसिएशन के 2015 के वार्षिक सम्मेलन में ‘ए जर्नी टू मिराकल, फ्रीडम फ्रॉम इंसुलिन´ नाम की एक डॉक्यूमेंट्री लगातार तीन दिन तक दिखायी गयी. आज तक अधिकतर चिकित्सकों को इतना ही पता था कि टाइप ‘वन´ डायबिटीज, जो बच्चों में होती है (जिसमें उनके पैंक्रियाज से इंसुलिन बनने का पूरा सिस्टम ही बरबाद हो जाता है), उनकी जिंदगी के लिए केवल इंसुलिन की सूई ही वह अमृत है, जिसके बिना वे जिंदा नहीं रह सकते. यह जानना कि टाइप वन डायबिटीज के बच्चे में कुछ ऐसे भी हैं, जो बिना इंसुलिन (डायोनिल) के टैबलेट से अपनी बीमारी नियंत्रित कर सकते हैं, वस्तुत: हैरान और चमत्कृत कर देनेवाली खोज है.

अनुमान है कि अमेरिका में करीब पांच लाख और पूरी दुनिया में करीब पचास लाख ऐसे बच्चे हैं, जो टाइप वन डायबिटीज का खुलासा होने के बाद रोज इंसुलिन की सूई ले रहे हैं और हकीकत यह है कि इसकी उन्हें जरूरत ही नहीं है. रोग के इस दूसरे प्रकार जिसे ‘मोनोजेनिक´ डायबिटीज कहते हैं, उसमें उनको टेबलेट पर रखा जाना ही पर्याप्त है. मगर इसकी जानकारी 95 प्रतिशत चिकित्सकों को है ही नहीं. और कोई उनके दूसरे प्रकार की डायबिटीज का खुलासा करने को सोच भी नहीं रहा है. यह एक ऐसा तिलिस्म है, जिसको ‘फ्रीडम फ्रॉम इंसुलिन´ पर बनी यह अत्यंत महत्वपूर्ण डॉक्यूमेंट्री तोड़ रही है.

अमेरिका के शिकागो शहर के नजदीक लॉरी जेफी के घर जब बेटी पैदा हुई, तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा. मगर मात्र एक महीने बाद उनकी बेटी, जिसका नाम उन्होंने लिली रखा था, बीमार रहने लगी. उसके डायपर हमेशा भींगे रहते और लगातार ‘इरिटेबल´ रहतीं. उसका टेस्ट किया गया और यूरिन में सुगर की मात्रा मिलने के बाद उसके रक्त में सुगर की मात्रा खतरनाक स्तर पर पायी गयी. पूरी फैमिली के लिए इस विपत्ति को झेलना आसान नहीं था. इतने छोटे बच्चे को भोजन के बारे में समझाना, रोज दस से पंद्रह बार ब्लड सुगर की जांच करना और इंसुलिन की सूई देना, यह एक दुरूह कार्य था.

कभी इंसुलिन की मात्रा ज्यादा हो जाती, तो रक्त में सुगर इतना घट जाता कि अटैक होने लगता. चार साल गुजरे. जब इंसुलिन की सूई देने के बावजूद नियंत्रण सही नहीं था, तो लिली को ‘इंसुलिन पंप´ लगा दिया गया. अब भी लिली इतनी छोटी थी कि इंसुलिन पंप को ऑपरेट नहीं कर सकती थी. यह सारा काम उसकी मम्मी ही कर पाती. उसके पिता जैफी इसी बीच टाइप वन डायबिटीज के एक रिसर्च फाउंडेशन जेडीगारएफ से जुड़े, जिसे शिकागो यूनिवर्सिटी के डॉ लुइस फिलिपसन चला रहे थे. वहां एक बार जैफी ने डॉ फिलिपसन का लेक्चर सुना, जिसमें बताया गया कि इंगलैंड के डॉ एंड्रयू हैटरली की टीम ने एक्सेटर शहर में हुए शोध से खुलासा किया है कि बहुत से टाइप वन बच्चों में पैंक्रियाज की बीटा कोशिकाएं स्वस्थ पायी गयी हैं और उसमें इंसुलिन पूरा बनता है. मगर केसीएनजे- 11 एवं एबीसीसी-8 जीन के म्यूटेशन के कारण पोटाशियम चैनल खुल नहीं पाते और बना हुआ इंसुलिन रक्त में रिलीज नहीं हो पाता. ऐसे बच्चों में पोटाशियम चैनल को खोलने में माहिर दवा ग्लीबेनक्लामाइड काम कर सकती है.

पूरे अमेरिका में अभी तक कोई ऐसा टाइप वन का मरीज नहीं था, जिस पर इस तरह का ट्रायल हुआ हो. यह काल था सन् 2006 का. जैफी ने डॉ फिलिपसन से बात की. डॉ फिलिपसन ने बताया कि यदि उनकी बेटी लिली को टाइप ‘वन´ डायबिटीज जन्म के छह महीने के अंदर का हो, तो यह मोनोजेनिक डायबिटीज हो सकता है. जैफी के अनुरोध पर आनन-फानन में लिली का रक्त डीएनए टेस्ट के लिए भेज दिया गया. जब उसका रिजल्ट आया, तो डॉ फिलिपसन भी हैरान रह गये. यह मरीज टाइप ‘वन´ का नहीं था, बल्कि जेनेटिक म्यूटेशन के कारण मोनोजेनिक डायबिटीज का था.

लिली की उम्र साढ़े छह साल थी. वह दिन था 23 अगस्त, 2006. इस दिन उसका इंसुलिन पंप हटाकर ग्लीबेनक्लामाइड की गोली हाई डोज में शुरू की गयी. कुछ देर बाद लिली के ब्लड सुगर की जांच की गयी, तो वह सामान्य था. यह जैफी के परिवार के लिए और अमेरिका के हजारों ऐसे ही बच्चों के लिए चमत्कार से कम नहीं था. आज लिली की उम्र 16 साल है. 23 अगस्त, 2006 के बाद से उसे इंसुलिन की सूई लेने की जरूरत ही नहीं पड़ी. वर्ष 2006 में यह घटना अमेरिका के इतिहास में मील का पत्थर बन गयी. इसके बाददुनिया के विभिन्न हिस्सों से ऐसे टाइप वन के बच्चे शिकागो जेनेटिक टेस्टे के लिए आने लगे.

आज तक करीब चार हजार बच्चों का इंसुलिन मोनोजेनिक डायबिटीज के निदान के बाद छूट चुका है और सभी ग्लीबेनक्लामाइड की गोली खाकर सुगर का बेहतरीन ढंग से नियंत्रण कर रहे हैं. इन सभी बच्चों के लिए ‘फ्रीडम फ्रॉम इंसुलिन´ का हो जाना ‘मिराकल´ की यात्रा से कम नहीं है. इस अभूतपूर्व खोज के बाद अब तक हजारों लोगों को इंसुलिन की सूई लेने की झंझट से मुक्ति मिल चुकी है.

टोरंटो (कनाडा) में तो एक ऐसी फैमिली है, जिसकी तीन पीढ़ियों के अब तक टाइप ‘वन´ डायबिटीज का खुलासा हुआ. मोयनीहान फैमिली के चार साल के बच्चे मैकले, उसके पिता स्कॉर्ट , दादा टॉम को अंतत: इंसुलिन की सूई से मुक्ति मिल गयी. सही निदान नहीं होने के कारण स्कॉर्ट 42 साल की उम्र तक और टॉम 65 साल की उम्र तक सूई लेने के लिए विवश थे. इन सभी को डायबिटीज जन्म के छह महीने के अंदर ही हो गया था. ऐसे सभी टाइप ‘वन´ के मरीज, जो जन्म के छह महीने के भीतर इस बीमारी से पीड़ित हुए हों और इंसुलिन की सूई पर हों, उन्हें अपने रक्त का टेस्ट जेनेटिक म्यूटेशन के लिए कराना चाहिए. ऐसे ही लोगों में मोनोजेनिक डायबिटीज होने की प्रबल संभावना है और उन्हें ग्लीबेनक्लामाइड दवा की गोली पर रखा जा सकता है.

डॉ फिलिपसन से मुझे मिलने का मौका जून, 2015 में मिला. उन्होंने मुझे बताया कि ‘फ्रीडम फ्रॉम इंसुलिन´ डॉक्यूमेंट्री को बनाने में छह साल लगे. अथक परिश्रम के बाद 25 जनवरी, 2015 को शिकागो पीबीएस टीवी चैनल पर यह पहली बार प्रसारित किया गया. अमेरिकन डायबिटीज के वार्षिक सम्मेलन 2015 में इसे बोस्टन में चिकित्सकों को दिखाया गया. यह डॉक्यूमेंट्री हमें रुलाती भी है और हंसाती भी है. मोनोजेनिक डायबिटीज से ग्रसित बच्चों की मुस्कुराहट से ओत – प्रोत इस चमत्कारी खोज के शोधकर्ताओं का भी गाथा अमर रहेगी. अमर रहेगी डॉ लुइस फिलिपसन की जागरूकता फैलाने की यह अनोखी मिसाल. डॉ फिलिपसन ने इस डॉक्यूमेंट्री की सीडी मुझे अमेरिका से मुफ्त में भेजी है. यह उनकी संवेदनशीलता और बीमारी पर ज्यादा से ज्यादा लोग जागरूक हों, उनकी तत्परता दर्शाती है. एक्सटर इंगलैंड का सेंटर तो हजारों रुपये की इस जांच को मुफ्त में कर रहा है. कोई भी व्यक्ति दुनिया के किसी भी कोने से इस लैब में अपने खून की जांच करवा सकता है.

भारत में भी ऐसे हजारों बच्चे होंगे, जो आज जानकारी के अभाव में इंसुलिन की सूई लेने को विवश हैं. अगर उन बच्चों के परिवार तक यह जानकारी फैलती है, खासकर चिकित्सकों को भी इसका भान होता है, तो ‘जर्नी टू मिराकल´ सही मायने में ‘मिराकल´ लाकर रहेगा.